SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रावणका दिग्विजय | वहाँसे लौटकर रावण लंकामें गया और पिंजरे में जैसे तोतेको बंद करते हैं, वैसे ही उसने इन्द्रको जेलखाने में बंद कर दिया । ९७ " यह खबर इन्द्रके पिता सहस्रारको हुई । वह दिग्पालोंको लेकर, लंकामें गया और हाथ जोड़, नमस्कार कर रावण से कहने लगा:-- “ जिसने कैलाश पर्वतको एक पत्थरकी तरह उठा लिया ऐसे तुम्हारे समान वीरसे पराजित होकर, हम तनिक भी लज्जित नहीं हैं । इसी तरह तुम्हारे समान वीरसे याचना करनेमें भी हमें किसी तरहकी लज्जा नहीं मालूम होती है । इस लिए मैं प्रार्थनाकरता हूँ कि इन्द्रको छोड़ दो मुझे पुत्र भिक्षा दो । " रावण बोला :-- “ यदि इन्द्र अपने परिवार और दिग्पालों सहित कुछ काल पर्यंत निरंतर कार्यकरता रहे, तो मैं उसको छोड़ सकता हूँ । काम यह है- अपने रहनेके घरको जिस तरह कूड़े कचरे रहित - साफरखते हैं, उसी तरह लंकाको वह साफ रक्खे; प्रातःकाल ही दिव्य सुगंधित जलसे, मेघकी तरह, वह नगरीमें छिड़काव करे; और मालीकी भाँति बागोंमेंसे फूल तोड़, उनकी मालाएँ बना, जितने भी नगर में देवालय हैं, उनमें वह मालाएँ पहुँचाया करे । इतना कार्य करना यदि ७ को स्वीकार RECEDEP % JAN 281001
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy