SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन रामायण द्वितीय सर्ग। ग्रंथ तैयार कराया था, इसी लिए मैं सब गुणों विहीन . ठहरा था। ___ तत्पश्चात उसने सोचा-मुझे चाहिए कि मैं सगर राजाको और अन्य सब राजाओंको प्राण दंड हूँ। फिर वह असुर उनके छिद्र देखते हुए फिरने लगा। __पर्वतका हिंसात्मक यज्ञकी प्रवृत्ति करना। __महाकालने फिरते हुए एकवार शुक्तिमती नदीमें पर्वतको देखा । वह ब्राह्मणका रूप बनाकर पर्वतके पास गया और कहने लगा:--" हे महामति ! मेरा नाम 'शांडिल्य' है । तेरा पिता क्षीरकदंब मेरा मित्र था । पहिले मैं और तेरा पिता दोनो गौतम नामक एक उपाध्यायके पास पढ़ते थे। मैंने सुना है कि, नारदने और कुछ लोगोंने तेरा अपमान किया है । तेरे अपमानका प्रतिकार करनेके लिए मैं यहाँ आया हूँ। मैं, विश्वको मुग्ध करके, तेरे पक्षकी पूर्ति किया करूँगा।" पर्वत और महाकाल दोनों एक साथ रहने लगे। असुरने दुर्गतिमें डालनेके लिए बहुतसे लोगोंको कुधर्ममें मुग्धकर दिया । उसने लोगोंमें, सर्वत्र व्याधि और भूत आदिके दोष उत्पन्न करके, पर्वतके मतको निर्दोष प्रमाणित करनेका प्रयत्न प्रारंभ किया। ___ शांडिल्यकी आज्ञासे पर्वत रोगोंकी शान्ति करने लगा; और लोगोंको, उपकृत करके अपने मतमें मिलाने लगा।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy