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________________ रावणका दिग्विजय। ७७. नामका ग्रंथ रचा । उसमें उसने इस ढंगकी बातें लिखी कि जिससे सगर राजा सारे राजलक्षणों युक्त ठहरे और मधुपिंग सारे राजलक्षणोंसे हीन समझा जाय । उस ग्रंथको उसने, प्राचीन ग्रंथ-पुराण-की भाँति प्रतिष्ठित समझानेके हेतुसे, एक संदूकमें बंद करवा दिया । अवसर पाकर पुरोहितने राजसभामें उस ग्रंथकी चरचा की। राजाकी आज्ञा पाकर, उसने राजसभामें उस ग्रंथको पढ़ना प्रारंभ किया। सगर राजाने कहा:--" इस ग्रंथके अनुसार जिसमें राजलक्षण न हों वह सभासे बाहिर निकाल देने योग्य है; या मार देने योग्य है।" पुरोहित जैसे जैसे पुस्तक पढ़ता जाता था, वैसे ही वैसे, उसमें वर्णित गुण-लक्षण-अपने अंदर न होनेसे, मधुपिंग लजित होता जाता था । अन्तमें मधुपिंग वहाँसे उठकर चला गया। सुलसाने सगर राजाके साथ ब्याह किया। सब अपने अपने घर चले गये। मधुपिंग अपमानसे लज्जित हो, बाल तप कर मर गया; और साठ हजार असुरोंका स्वामी 'महाकाल , नामका असुर हुआ। उसने अवधिज्ञानसे अपने पूर्व भवकी बात जानी । उसने जाना-मुलसाके स्वयंवरमें मेरे अपमानित होनेका कारण सगर राजा है। उसने कृत्रिम
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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