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________________ जैन रामायण द्वितीय सर्ग। wwwmmmmmmmm पर्वतने उत्तर दिया:--" हे माता ! अब तो मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। वह अन्यथा नहीं हो सकती।" - पुत्रकी भावी विपत्तिका विचारकर, पर्वतकी माता व्याकुल हो, वसु राजाके पास गई । कारण . 'पुत्रार्थे क्रियते न किम् ।' (पुत्र के लिए प्राणी क्या नहीं कर सकता है । ) पर्वतकी माताको देखकर, वसुराजाने कहा:-" आज तुम्हारे दर्शन होनेसे, मैं समझता हूँ कि मुझे साक्षात क्षीर कदंबगुरुके ही दर्शन हुए हैं । कहो, मैं तुम्हारा क्या कार्य कर दूं ? आपके क्या भेट करूँ ?" । ___ वह बोली:-“हे राजा ! मुझे पुत्रकी भिक्षा दो । पुत्र विना धनधान्य मेरे किस कामके हैं ?" वसुने कहा:-" माता ! तुम्हारा पुत्र पर्वत मेरे लिए 'पालनीय है; पूजनीय है । वेद कहते हैं कि-गुरुके समान ही गुरु-पुत्र के साथ भी वर्ताव करना चाहिए । हे माता ! असमयमें रोष धारण करनेवाले कालने आज किसका खाता निकाला है ? मेरे भाई पर्वतको कौन मारना चाहता है ? कहो तुम आतुर कैसे हो रही हो ?" । : पर्वतकी माताने, नारद और पर्वतके बीचमें जो वार्तालाप हुआ; पर्वतने जो प्रतिज्ञा की वह सब कुछ कह सुनाया और कहा:--हे वत्स! अपने भाई पर्वतकी रक्षाके लिए .
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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