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________________ रावणका दिग्विजय | हैं । इस लिए हे मित्र ! इन दोनों बातोंको अन्यथा कर, तू क्यों वृथा पाप उपार्जन करता है ? " ७१ पर्वत आक्षेप करता हुआ बोला :- " अरे नारद! गुरुने ' अज ' शब्दका अर्थ बकरा ही बताया था; तो भी तू गुरुके उपदेशका और शब्दके अर्थका उल्लंघन कर, धर्म उपार्जन करनेकी इच्छा करता है ? लोग दंडके भय से मिथ्याभिमानवाली वाणी नहीं बोलते हैं, मगर तू बोल रहा है । इस लिए हमको ऐसी शर्त करना. चाहिए कि, अपना पक्ष समर्थन करनेमें जो मिथ्या ठहरे उसकी जीभ काट दी जाय । इसका फैसला देनेके लिए हमें अपने सहाध्यायी वसु राजाको नियत करना चाहिए।" मैंने उसकी बात स्वीकार कर ली । क्यों कि ' न क्षोभः सत्यभाषिणाम् । ' ( सत्यवादियों के हृदयों में कभी क्षोभ नहीं होता है | ) पर्वतकी माताको इस प्रतिज्ञाकी खबर हुई । उसने अपने पुत्रको एकान्तमें बुलाकर कहा :- " हे पुत्र ! मैं झाडू दे रही थी | तेरे पिता तुमको पढ़ा रहे थे । उस समय मैंने सुना था । उन्होंने ' अज ' शब्दका अर्थ तीन वर्षका पुराना धान्य ही बताया था। इस लिए गर्व करके तूने जिन्हा छेदनेकी जो शर्त की है वह अच्छी नहीं है । कारण 'अविमृष्य विधातारो, भवन्ति विपदां पदम् । (विना विचारे जो कार्य करते हैं वे विपत्तिमें फँसते हैं ।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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