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________________ (६७) एवी रीतें बार खमासमण देने वांदे. पड़ी थरि हंतनी स्तवना करे. ने कदे . जय, श्रीअरिहंत, रुहंत, अर्हत, देवाधिदेव, परमे श्वर, परमकरुणानिधान महागोप, महामाहण, महा निर्यामक,महासबवाह, जगद्य, जिनेश्वर, तीर्थकर, विश्वंजर, विश्वपति, विश्वोत्तम, त्रिकालवित्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, देवाधिदेव, एरुपातम, वीतराग, जगन्नाथ जगबंधु, जगत्तारण, वुद्ध, जगवंत. विश्वानंदी, सहजा नंदी, गुइचेतनाधर्ममय, सक्तस्वनावमय,धर्मरत्नरत्ना कर. धर्मदेशक, जावधर्मदातार, परमात्मा, परमदशी परमगुरु,परमोपकारी,परममंसारतारक,अशरणशरण तरणतारण, नवनयहरण. इत्यादि श्रीअरिहंतनां स हस्र नाम जे, तेनो पाठ करे. . एम अगणितगुणगणालंकृत एवा श्रीमदर्हत जीने प्रतिदरों महारी वंदना हो; त्राण शरण गति मति स्थिति सर्व श्रीअरिहंतजी जे. एहज श्रदा म हारी सफल हो, एवी रीतिथी स्तवना करे. ___ तथा तेज दिवसें बार गुण माटे बार लोगस्स नो कानस्सग्ग करे, रात्रि दिवस व्यवहारे ए श्रीअरि हंतनो श्वेतवर्ण ध्यावे, अरिहंतना गुण कीर्तनमा रहे, पारणाने दिवसें बदुश्व्य निष्पन्न यथाशक्ति अ टप्रकारी, सत्तरप्रकारी, एकवीशप्रकारी, अष्टोत्तरी प्र मुख पूजा जक्तिपूर्वक करे, नवा मुकुटकुंमलादि नूषण चढावे, रत्नतिलक चढावे, अंगलूहगां, चंपुथा
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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