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________________ ( ५४७) ध्यानसें चंग रे॥श्री॥ अमरचंद चिंतामणि चित्तध र, लागो अविहड रंग रे ॥ श्री० ॥३॥ इति । ॥काफी होरी॥ ॥ ऐसें होरी तो होय रही चंपा नगरीमें, फागुनके दिन आए ॥ ऐमें ॥ एक ॥ वासपूज्यजीके नव ल मंदिरमें, होई रही हो सुखदाई ॥ ऐसें ॥१॥ केसर घोलोनरी रे कचोली, प्रनु पूजो नले जावें ॥ ऐसें ॥ २ ॥ अनुपम प्रेम पिचरको अदनुत, ना वना अवीर सुवासे ॥ ऐसें ॥ ३ ॥ परमानंद पर म सुख दायक, कीरति जग कहाय ॥ ऐसें ॥ ४ ॥ ॥राग काफीहोरी ।। ॥ आदिजिनेसर प्रनुजी, साहिव तेरी रे, जानें में बलिहारी॥॥॥ए देक ॥ नानिके नंदन पाप निकंदन,तीन नवन हितकारी गजानं में बलिहारी? सिमगिरि सोहन जिन मन मोहन,पेखत मूरति प्या री रे ॥ जा० ॥ ५ ॥ पूर्व नवाणुं वार प्रजुजी, रह्या रायण निरधारी रे ॥ जा ॥ ३ ॥ जात्रा नवाणुं कीनी युक्ते, उर्गति दूर निवारी रे ॥जा॥॥अढार अहवन चैत्री पूनम, जात्रा नवाणुं जुहारी रे॥जा॥ ॥५॥ सुरत संघ सदा सुखदाता, कहत कल्याण जय कारी रे ॥ जा ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥राग काफी होरी॥ ॥ नेमि निरंजन ध्यावो रे, वनमें तप कीनो ॥ नेमि ॥ सहसावनकी कुंज गलनमें, पंचमहाव्रत ती
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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