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________________ ( ४६३ ) श्रागमवादें हो गुरुगम को नहीं, ए सबलो विषवा द || अनि ॥ ३ ॥ घाती मूंगर खामा प्रति घणा, तुज दरिसण जगनाथ ॥ धीठाई करी मारग संचरूं, स गूं कोइ न साथ ॥ अनि० ॥ ४ ॥ दरिसण दरिसरा रटतो जो फरूं, तो रण रोऊ समान ॥ जेहने पीपासा हो अमृत पाननी, किम जांजे वषपान ॥ अनि ॥ ॥ ५ ॥ तरप न यावे हो मरण जीवन तणो, सीके जो दरिस काज ॥ दरिसण दुर्लन सुलन कृपा थकी, यानंदघन महाराज || अनि ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥ यश्री सुमति जिनस्तवनं लिख्यते ॥ ॥ राग वसंत तथा केदारो ॥ ॥ सुमति चरण कज श्रातम अरपण, दरपण जिम अविकार || सुग्यानी ॥ मति तरपण बहु सम्मत जाणियें, परिसरपण सुविचार || सुग्यानी ॥ सुम ति० ॥ १ ॥ त्रिविध सकल तनुधर गत प्रातमा, बहिरातम धुरि नेद ॥ सु० ॥ बीजो अंतर श्रातम तीसरो, परमातम प्रविवेद ॥ सु० ॥ सुमति० ॥ २ ॥ तम बुद्धे कायादिकें ग्रह्यो, बहिरातम रूप ॥ ॥ सुग्यानी ॥ कायादिकनो हो साखी धर रह्यो, अंत रामरूप ॥ सुग्यानी ॥ सुमति० ॥ ३ ॥ ज्ञाना नंदे हो पूरण पावनो, वर्जित सकल उपाधि ॥ सु ग्यानी ॥ तय गुण गण मणि खागरू, एम पर मातम साध ॥ सुग्यानी ॥ सुमति० ॥ ४ ॥ बहिरातम तजी अंतर यातमा, रूप थ‍ थिर नाव ॥ सु० ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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