SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४६) नेद ॥ सेवन कारण पहेली नूमिका रे, अनय अहे ष अखेद ॥ संनव ॥ ॥जय चंचलता हो जे प रिणामनी रे, ष अरोचक नाव ॥ खेद प्रवृत्ति हो करतां थाकीयें रे, दोष अबोध लखाव ॥ संजय० ॥ ॥ २ ॥ चरमावर्त हो चरम करण तथा रे, नव परि गति परिपाक ॥ दोष ट वलि दृष्टि खुने नली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥ संजा० ॥३॥परिचय पाति क घातिक साधुगुं रे, अकुशल अपचय चेत ॥ ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नय हे त ॥ संजव० ॥४॥ कारण जोगें हो कारज नीपजे रे, एमां कोई न वाद ॥ पण कारण विण कारज सा धीयें रे, ए निज मत उनमाद ॥ संनव ॥५॥ मु ग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनू प॥ देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनंदघन रस रूप ॥संनव० ॥ ६ ॥ इति । ॥ अथ श्रीअनिनंदन जिनस्तवनं लिख्यते ।। ॥राग धन्यश्री सिंधु ॥ आज निहेजो रे दीसे नाहलो ॥ ए देशी॥ ॥अभिनंदन जिन दरिसण तरसीयें, दरिसण उर्तन देव ॥ मत मत ने रे जो जई पूबीये, सदु थापे अह मेव ॥ अनि ॥ १ ॥ सामान्य करी दरिसण दोहे खू, निर्णय सकल विशेष ॥ मदमें घेखो रे बांधो केम करे, रविशशि रूप विलेख ॥ अनि ॥ २ ॥ हेतु विवादें हो चित धरि जोश्ये, अति उर्गम नय वाद ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy