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________________ ( ४५३ ) मूलथी नारकीने बमणुं, अंतर मुहूर्त्त रहे एम पनं ॥ तिरि नरने मुहूर्त्त चार, देवने एक पक्ष उदार ॥ ६ ॥ ॥ द्वार त्रीजुं ॥ ढाल बही ॥ रह्यो रे यावास डवार ॥ ए देश ॥ ॥ ॥ वज्रकपननाराच, कृषननाराच रे, नाराच नाराच बेरे ॥ किलिका बेवहुं ए सूत्रे, जिनवर देवेंरे, संघयण व जाख्यां वे रे ॥ १ ॥ थावर नारकी देव, संघयणा रे, बेवडा विकलेंड़िया रे ॥ मनुष्य ने तिर्यच, ब संघया रे, समय विषे नि वेदीया रे ॥ २ ॥ ॥ द्वार चोथुं ॥ ढाल सातमी ॥ वृषभानु नवनें गई दूती ॥ ए देशी ॥ चार दश संज्ञा हुए सहूनी, आहार नय मैथुन पंरिग्रहनी ॥ क्रोध मान माया लोन लोक, जय दशमी संज्ञा थोक ॥ १ ॥ ॥ द्वार पांचमुं ॥ ढाल श्रामी ॥ सेला मारूनी देशी ॥ ॥ समचतुरस्र हो न्यग्रोध निसादिक, वामन कू ब्ज हो हुंमक ए ब कह्यां ॥ सर्वे सुरने हो पहेलुं होय संस्थान, नर तिर्यचमां हो सघलां ए जह्यां ॥ १ ॥ विकलेंड़ीनें हो नरकमां कुंमक होय, नानाविध धजहो सूई बुब्बु वसई ॥ वान तेन हो अपचनक्के ए चार, पुढवी मसुर हो चंदाकारें कही ॥ २ ॥ ॥ द्वार बहुं ॥ ढाल नवमी ॥ सिरोईनो सेलो हो के ॥ ए देशी ॥ ॥ क्रोध मान माया हो के, वली लोन सूत्रे लह्या ॥ दमक चोवीरों हो के, कषाय ए चार कह्या ॥ १ ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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