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________________ ( ४३८ ) जिन श्रागममांहि ॥ यथाख्यात चारित्रं ते मोह, बीजे चरणें मोह नांहि रे ॥ प्रा० ॥ मुक्ति० ॥ ६ ॥ पांच प्रकारें समकित जाणो, पंचांगीना जाए || वी जे समकीतें नवि लहीयें, कायिके मोह होय प रे ॥ प्रा० ॥ मुक्ति ॥ ७ ॥ आहार ने नवम हे न माडे, अणाहार दिये मोह ॥ दर्शन चार कह्यां नराजें, केवल मोहने मांगे रे ॥ प्रा० । ० ॥ मति श्रुत अवधि ज्ञानह, मनःपर्यव ते जं ॥ केवल ज्ञानथी केवल ज्योति, प्रथम द्वार एम होने रे ॥ प्रा० ॥ मु० ॥ ए ॥ सिद्धना जीव इव्य अनंता, अनंता जीवसिद्धि पाम्या | लोक संख्यातमे जा गें, सिद्ध ते सवि दुःख वाम्यां रे ॥ प्रा० ॥ मु० ॥ १० ॥ aar फरसना अधिकी जाणो, एक आकाश प्रदेशें ॥ एक सिद्ध प्राश्रित यादि बे, अनंतें अनादि रे ॥ प्रा० ॥ मु० ॥ ११ ॥ पडवाना अनावथी जा पो, अंतर सिने नहीं ॥ सर्व जीवने अनंतमे जागें, सिद्ध रह्या गुचि सही रे || प्रा० ॥ मुक्ति० ॥ १२ ॥ कायिक ने परिणामिक नावें, वे जावें होवे सिद्ध ॥ सर्व थकी थोडा नपुंसक, संख्यातगुणी स्त्री सिद्ध रे ॥ प्रा० ॥ मुक्ति ॥ १३ ॥ तेहथी संख्याता पुरु पज जाणो, समयें नपुंसक दश || स्त्री सीके एक स मयें वीश, पुरुष अष्टोत्तर ईश रे ॥ प्रा० ॥ मुक्ति० ॥ १४ ॥ अल्प बहुत्त्व ए नवमुं द्वार, कयुं गुरुमुखथी में
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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