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________________ (४३७) काल स्थिति जोय रे ॥ प्रा० ॥सांग ॥ १० ॥ झानावरणी कर्मनी रे, दर्शनावरणी अंतराय ॥ मोह नी आयु कर्मनी रे, अंतर मुहूर्त कहेवाय रे ॥ प्राण ॥सांग ॥११॥आठ कर्मथी अलगा रहो रे, जिम लहो सुख निरवाण ॥ मूंगर गुरुना पदथकी रे, वि वेकने कोडि कल्याण रे ॥ प्रा० ॥ सांग ॥ १२ ॥ ॥दोहा॥ बंध तत्त्व पूरण थयुं, मोदतत्त्व सुवि चार ॥ तेमाटे नवियण तुमें, आराधो हितकार ॥१॥ ॥ ढाल दशमी॥ नविका सिचक्र पद वंदो॥ए देशी॥ ॥बता पदनुं प्रथम प्ररूपण, इव्य प्रमाण ए बीजुं ।। खेत्र प्रमाण ते त्रीखं जाणो, फरसना हारें रीजो रे ॥ प्राणी॥ मुक्ति पद आराधो॥ाराधी शिव साधो रे ॥ प्राणी ॥ मुक्ति ॥ ए अांकणी ॥१॥ काल चार ते पांचमुं थुपीयें, अंतर बहुं धीर । सातमुं नागने घाउमुं नाव, अल्प हार कहे वीर रे ॥प्रा० ॥ मुक्ति० ॥ ॥ चारगतिमाहे मनु ष्य गतियें, मोद होवे निरधार ॥ पांच इंशीमांहे पं चंडीथी, शिवपद लहे सुखकार रे॥ प्रा० ॥ मुक्ति ॥ ३ ॥ पृथिवी आदि पांचे थावर, एहने मोह न लहीयें॥त्रसकायथी मोदें जावे, एह आणा सह हीयें रे ॥प्रा० ॥ मुक्ति ॥ ४ ॥ जव्य अने अनव्य ए दोविध, जव्यने होय शिव गण ॥ सन्नी अस नी बे पदमांहे, सन्नीयो लहे निर्वाण रे ॥ प्राणी ॥ मुक्ति० ॥ ५ ॥ चारित्र पांच प्रकारे नांरव्यां, श्री
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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