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________________ (४०३) हो काम जी॥आ॥३२॥ दमा करंतां खरच न लागे, नांगे कोड कलेश जी ॥अरिहंत देव पारा धक थाये, व्यापे सुजस प्रदेश जी ॥ ० ॥ ३३ ॥ नगरमांहे नागोर नगीनो, जिहां जिनवर प्रासाद जी॥ श्रावक लोक वसे अति सुखिया, धर्मतणे पर साद जी ॥ प्रा० ॥३४॥ दमा बत्रीशी खांतें की धी, आतम पर नपगार जी" सांजलतां श्रावक पण समज्या, उपशम धस्यो अपार जी ॥ आ० ।। ३५॥ जुगप्रधान जिणचंद सुरीसर, सकलचंद तसु शिष्य जी ॥ समयसुंदर तसु शिष्य नणे इम, चतुर्विध सं घ जगीश जी ॥ आ॥३६ ॥ इति माउत्रीशी॥ ॥अथ वैकुंठपंथ लिख्यते ॥ ॥वैकुंठ पंथ बीहामणो, दोहिलो ने घाट । था पणनो तिहां कोई नही, जे देखाडे वाट ॥१॥ मार्ग वहे रे नतावलो, मे जीरी खेह ॥ को इ केहने पडखे नही, बांकी जाए सनेह ॥ मा० ॥ २ ॥ एक चाव्या बीजा चालशे, त्रीजा चालण हार ॥ रात दिवस वहे वाटडी, पडखे नही ल गार ॥ मा० ॥३॥ प्राणीने परिया' आवियुं, न गणे वार कुवार ॥ना नरणी योगिणी, जो होय सामो काल ॥ मा०॥ ॥ जम रूपें बिहामणो, वाटें दीये रे मार ॥ रुत कमाई पूबशे, जीवनो किर तार ॥ मा० ॥५॥लोनें वाह्यो जीवडो, करतोब दु पाप ॥ अंतरजामी आगलें, केम करीश जबा
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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