SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३७३ ) ल गात्र जेहनुं, द्वितिय अतिशय ए सही ॥ गोदूध सरिखां मांस लोही, तृतिय एह वखाणियें ॥ चोथो ते उत्पल गंध सरिखो, श्वासोवास सो जागियें ॥ २ ॥ आहार ने नीहार प्रबन, एह अतिशय पांचमो ॥ श्राकाशगत धर्मचक्र बहो, गगन बत्र ए सातमो ॥ रह्यां ते अंबर श्वेत चामर, युग्म अष्ट म ए को ॥ स्फटिक सिंहासन सुनिर्मल, नवमो अतिशय ए जह्यो ॥ ३ ॥ श्राकाशगत ध्वज सहस मंमित, इंइध्वज आगल चने ॥ ए दशम अतिशय को श्रुतमां, देखी परमत खलनले ॥ इग्यारमे वलि स्वामी ऊना, रहे वली बेसे जिहां ॥ सहाय स ध्वज देव ततक्षण, अशोकतरु विरचे तिहां ॥ ४ ॥ द्वादश व्यतिशय प्रनामंगल, पूठें रविकर जी पियें ॥ रमणीय सुंदर भूमि नागसो, तेरमो ए दीपियें ॥ अ धोमुख होये सर्व कंटक, चौदमे प्रतिशयवरु ॥ नुकून थइने प्रणमे ऋतु सब, पंचदशमो सुखकरू ॥ ५ ॥ संवर्त्तपवनें भूमि पूंजे, योजन लगें ए शो लमे ॥ सुगंध वर्षा तिहां वरसे, प्रगट अतिशय सतर मे || जानुप्रमाणे बीट नीचां पंचवर्ण सोहामणां ॥ चलना फूल वरसे, अढारमे अतिशय घणां ॥ ६ ॥ मनोज्ञ शब्दादिकही नासे, जंगलीशमे प्रतिश यें वली ॥ विशमे अतिशयें सुनद थाये, एम कहे प्रभु केवली || एकवीशमे प्रभु तणीय देशना, योजन लगें सवि जन सुणे ॥ बावीसमे धर्म ई मागध, ना
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy