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________________ ( ३७२ ) करे वीनति जी रे, जांखे श्रीजिनराज ॥ सो० ॥२॥ वैनार गिरि जाइ चड्या जी रे, मुनिदरिसण कमंग ॥ सहु परिवारें परवखा जी रे, पहोता गिरिवरशृंग ॥ ॥ सो० ॥ ३० ॥ दोय मुनि सण उच्चरी जी रे, जीने ध्यान मकार ॥ मुनि देखी विलखा थया जी रे नयणें नीर अपार ॥ सा० ॥ ३१ ॥ गदगदशब्दे बोलती जी रे, मली बत्री नार ॥ पिडा बोलो बो लडा जी रे, जिम सुख पामे चित्त । सो० ॥ ३२ ॥ में तो अवगुणें नया जी रे, तुं सही गुण जंमार ॥ मुनिवर ध्यान चूका नही जी रे, तेहने वचने लगार ॥ सो० ॥ ३३ ॥ वीरा नयरों निहालियें जी रे, जिम मन थाये प्रमोद ॥ नयण नघाडी जोइयें जी रे, मांता पा मे मोद | सो० ॥ ३४ ॥ शालिन माता मोहनी जी रे, पोहोता अमर विमान || महाविदेहें सीऊशे जीरे, पामी केवल ज्ञान ॥ सो० ॥ ३५ ॥ धनो धर्मी मुक्के गयो जी रे, पाम शुक्ल ध्यान ॥ जे नर नारी गावशे जी रे, समयसुंदरनी वाल || सो० ॥ ३६ ॥ ॥ अथ चोत्रीश अतिशयनो बंद || || श्री सुमतिदायक डुरितघायक, ज्ञान अनुभव श्रीवरी ॥ तसु सुगुरु केरा चरण प्रणमुं युगम कर जोडी करी ॥ बहु जाव न थुद्धं जिनवर, चोत्रीशे अतिशय करी ॥ जे सुगुरु मुखथी सुल्या ते कहुं, श्रागम शास्त्र अनुसरी ॥ १ ॥ तिहां प्रथम प्रतिश य श्री जिन केरा, रोम नख वाधे नही ॥ नीरोग निर्म
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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