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________________ (३५७ ) णी ॥संसारें रह्या बो मूंजी, दिन दिन तन बीजे ॥ आथ आननी बाया सरिखी, पोतानी कीजें ॥ चा० ॥१॥ जे करवू ते पेहेला कीजें, कालें शी वातो॥ अणचिंतवी आवी पडशे, सबलानी लातो॥चा०॥ ॥ २॥ चतुराईझुं चित्तमां चेती, हाथे ते साथें ॥ मरण तणा नीशाणां महोटां,गाजे ने माथे। चा० ॥ ॥३॥ मात मरुदेवानंदन निरखी. जव सफलो कीजें॥ दान विजय साहेबनीसेवा, ए संबन लीजें ॥चा॥४॥ ॥अथ पद्मनप्रजिन स्तवनं ।। ॥षन जिनेसर प्रीतम माहरा रे ॥ ए देशा॥ ॥ कागलीयो किरतार नणीशी परें लिखु रे,कवि प्रो कर जोड ॥ जिम तिम लवतां हाथ वहे नही रे, लखवानो पण कोम ॥ का॥ १ ॥ सैंगो माण स शिवपुर चालतो रे, न मने इण कलि काल॥प्रनु लगे सपगो पोहोंची सके नही रे, निपगानो जंजाल ॥का ॥ ॥ हाथ न जाले कागल केहनो रे, कहो केम वाधे नेह ॥ अलवे ते पाडो उत्तर नवि लखे रे, साहेबीयो निसनेह ॥ काम् ॥ ३॥ एह निरंजन ते किम रंजीयें रे, जो लिखुं विनती लाख ॥ दूरथकी सेवक हुँ थइ रढुं रे, लेइ सहुनी साख ॥ का ॥४॥ एक परखी जो जागो पालगुं रे,पदम प्रनुलॅप्रीत ॥ तो कागल जिनराजमां मूकजो रे, श्ण घर एहीज रीत ॥ का० ॥ ५ ॥ इति पद्म प्रनजिन स्तवनं ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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