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________________ (३४४) ॥अथ स्तवनं ॥ राग अनाती॥ ॥आजको लाहो लीजीयें, काल केणे रे दीठी ॥रह ण न पावे पाघडी, जब आवे चीठी ॥ आ ॥१॥ मनसा वाचा कर्मणा, बालस सब बंमी ॥ ध्यान धरूं अरिहंतनु, स्थानक वि.र मंमी ॥ ॥॥ विनय मूल जे पालीयें, श्रीजिनवर धर्म ॥ नावें शुरू ारा धतां, लूटे निजकृत कर्म ॥ आप ॥३॥ दान शि यल तप नावना, ए चार प्रकार ।। ठया शु६ आरा धीयें, पामीयें नवपार ॥ श्रा० ॥ ४ ॥ धर्मनो म मै ए जाणजो,राग ष ने वारो ॥ केवल ज्ञान निपा क्ने, देवचंद पद सारो॥आ ॥ ५॥ इति ॥ ॥अथ प्रजातीरागमां स्तवन ॥ ॥ में परदेशी दूरका, प्रन दरिसणकू याया ॥ लाख चोराशी देश फखा, तेरा दरिसन पाया ॥में॥ ॥१॥ सूक्ष्म बादर निगोदमां, वनसपति बसाया ॥ अप तेन वान कायमां, काल अनंत गमाया ॥ में ॥२॥ स्वर्ग नरक तियेचमें, केता जन्म गमा या ॥ मनुष्य अनारय में नम्या, तिहां नही दरिसन पाया ॥ में०॥३॥ तेरो मेरे दरसा अब नयो, पू रण पुण्य पसाया ॥ रूपचंद कहे नाग्य खुले, निरंज न गुण गाया ॥ में ॥ ॥ इति ॥ ॥अथ पार्श्वनाथस्तवन ॥ कबीनाषामां ॥ अमां अांचं नेहडो कंधी, गोडीचे पेर वेंधी॥ केसरजो घोर घोरींधी, विकि अांखें पूजा कंधी ॥ इन
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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