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________________ (३१७) गावं ।। आनंद कहे प्रनु पासजी, कबु र न चाहुँ। ( में तो अवर न ध्यावं)॥ मे ॥३॥ इति ॥ ॥अथ सिहाचलस्तवनं ॥ ॥ए तो सकल तीरथनो राय,मोहोटो गिरिवर कहे वाय ॥ एहनी जात्रा पुण्ये थाय ॥ मनोहर मित्र ए गिरि सेवो, उनियामां देव नही एवो । म ॥ ए यांकणी॥१॥ सुर नर विद्याधर यावे, एतो जात्रा करे मन नावें ॥ हारे एहनुं समकित निरमल थावे ॥ मम् ॥ २॥ सोनाने रूपानां फूल, मोती मागक रत्न अमूल ॥ गिरि वधावो बदु मूल ॥ म ॥३॥ केसर सूरखड ने कपूर, गिरि पूजे जगमते सूर ॥ तेनां कर्म थाये चकचूर ॥म० ॥४॥ सूरज कुंममा जे नाये, नवोनवनां पातक जाये ॥ एनी देही कनक मय थाये. ॥म० ॥५॥ मेंतो पूज्या श्रीषन जि वंदा, मुफ हाडे अतिही आणंदा ।। मुख सोहे पून मकेरो चंदा ॥ म० ॥ ६॥ मन जाणीने लान अ नंत, आव्या त्रेवीशे जगवंत ॥ कीधो सकल कर्मनो अंत ॥ म ॥७॥ शेर्बुजो जे नयणें निहाले, नर क तिर्यच गति निवारे ॥ तेनो शिवरमणी कर काले ॥ म० ॥ ७॥ संघवी ताराचंदनो संघ, नूषणदास मच्या मनरंग ॥ एतो जात्रा करे सर्व संघ ॥म॥ ॥॥ श्रीविधिपद गजपति राया, उदयसागर सूरि सुपसाया॥ शिष्य तिलकचंदें गुण गाया॥ म० ॥१०॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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