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________________ ( ३०० ) दूरथ ललचाय के, प्रजुनी उलगें रे लो ॥ जिनजी जेम ते म मेलो याय के, ते करजो वगें रे लो ॥ जिनजी कां पण नेह के, साचो मानजो रे लो ॥ जिनजी तुम श्री नहुं गुणगेह के, अमृत पानजो रे लो ॥ २॥ जि नजी प्रभुशुं बांध्यो प्रेम के, ते केम तीसरे रे लो ॥ जिनजी बीजे जावा नियम के, प्रभुर्थी दिल ठरे रे लो ॥ जिनजी जोतां ताहारं रूप के, अनुभव सां रे रे लो ॥ जिनजी ताहरी ज्योति अनूप के, चिंता दुःख हरे रे लो ॥ ३ ॥ जिनजी खुं जोजन खाय, मिठानी लाजचें रे लो ॥ जिनजी खातमने हित थाय के, प्रभु ना गुण रुचे रे लो ॥ जिनजी कर्म तणां वन जोर के, तेही तारियें रे लो ॥ जिनर्जी समकेतना जेो र के, तेहने वारियें रे लो ॥ ४ ॥ जिनजी निज सेव क जाणीने, मुक्ति बतावीयें रे लो ॥ जिनजी करुणा रस याणीने, मनमां लावीयें रे लो || निजी वाच क सहज सुंदरनो, सेवक एम कहे रे लो ॥ जिनजी पंमित श्रीनित्यलान के, प्रभुथी सुख लहे रे ॥ ५ ॥ ॥ अथ श्री श्रेयांस जिनस्तवनं ॥ ॥ रंगीले यातमा ॥ ए देशी ॥ सहेर बडा संसा रका, दरवाजे जसु चार ।। रंगिले खातमा || चोराशी लख घर वसे, यति महोटे विस्तार ॥ रं० ॥ १ ॥ घरघरमें नाटक बने, मोह नचावण हार ॥ रं० ॥ वेश बने केई नांतके, देखत देखनहार ॥ रं० ॥ ॥ २ ॥ चनद राजके चोकमें, नाटक विविध प्रकार ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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