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________________ (२६५) ल॥ एक सो कोडी रे, बावन कोडी ए॥ लाख चोरा पुं रे, संख्या जोडीएं ॥ त्रुटक ॥ जोडीएं चोश स हस एकशो, चालीशे तिहां आगली ॥ जिनप्रासाद एकसो असिथ लेखें, वंदूं प्रतिमा उऊली ॥ चैत्यसं रख्या ऊर्ध्व लोकें, वीर वचनविरव्यात ए॥ वाचक मू ला कहे जगजो, स्तवन ए परमात ए ॥३॥ ॥ ढाल सातमी ॥ वेयढगिरि सितिर सय जिनहर, वृषधरना तिहां त्रीश जी ॥ कुरुडुमनां दश जिनहर बोल्या, गजदंतें तिहां वीशजी ॥ १ ॥ असिथ ते जिनहर कुरुशुम परिधे, असिअ वखारे जाणुं जी॥ मेरुतणा पंचाशी जिनहर, खुकारें चार वखाणुं जी ॥ २॥ मानुषोत्तर पर्वत तिहां चारज, नंदीसरना वी श जी॥ कुंमल रुचक तिहां चार चार जिनहर. इष नादिक तिहां ईश जी ॥३॥ पंचसया श्यारें अ धिका, जिनहर तिर्ने लोकें जी॥ पडिमा एकशठ स हस चारसें, बोली सघले थोकें जी॥ ४ ॥ अधो कने ति लोकें, सवे मली कोडी बातें जी ॥ ला ख उप्पन्न ने सहस सत्ता', पणसय चोत्रीश पाठे जी ॥ ५ ॥ जिन पडिमा पन्नरसें कोडी, बेंतातीश वली कोडी जी ॥ लाख पंचावन सहस पणविस, प सय चालीश जोडी जी ॥ ६॥ एतां तवन नणे जे नावें, प्रह उगमते सूरे जी ॥ वाचकमूला कहे गुण गातां, उर्गति नासे दूरे जी ॥ ७॥ ढाल आठ मी ॥ अवय समेत शिखरगिरि । साजनजिथ ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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