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________________ (१४२) रे ॥ जि० ॥ १ ॥ तु विरहो किम वेतीयें हो लाल, तुम विरहो दुःखदाय रे || जि० ॥ तुम विरहो न ख माय रे ॥ जि० ॥ खिय वरसां शो थाय रे ॥ ज० ॥ विरहो मोहोटी बलाय रे ॥ जि० ॥ कुं० ॥ एत्रांक ली ॥ ताहररी पासें खाववुं रे, पहिलां भावे तुं दाय रे ॥ जि० ॥ याव्या पढ़ी तो जायवुं दो नाल, तु ऊ गुण वसे न सुहाय रे ॥ जि० ॥ कुं ॥ २ ॥ न मल्यानो धोखो नहीं रे, उस गुणनूं नहीं नाप रे ॥ जि० ॥ मलिया गुण कलिया पढें हो लाल, विठरत जाये प्राण रे || जि० ॥ कुं० ॥ ३ ॥ जातित्र्यंधने 5: ख नही रे, न लहे नयननो स्वाद रे ॥ जि० ॥ नय ण सवाद नही करी हो लाज, दायां ने विवाद रे || जि० ॥ कुं० ॥ ४ ॥ बीजे पण किहां नवि गमे रे. जिसे तुम विरह वंचाय रे || जि० ॥ मालति कुसुमें माल्हीयो हो लाल, मधुप करीरें न जाय रे ॥ जि० ॥ कुं० ॥ ५ ॥ वनदव दाधां रूंखडां रे, पाल्हवे वली वरसात रे ॥ जि० ॥ तुऊ विरहानलना बल्या हो लाल, काल अनंत गमात रे ॥ जि० ॥ कुं० ॥ ६ ॥ ताढक रहे तुऊ संगमें रे, प्राकुलता मिटि जाय रे ॥ जि० ॥ तुज संगें सुखीयो सदा हो लाल, मान विजय नवजाय रे ॥ जि० ॥ कुं० ॥ ७ ॥ इति ॥ १७ ॥ ॥ अथ श्री रजिन स्तवनं ॥ ॥ उधव माधवने कहेजो ॥ ए देशी ॥ श्री अरना य उपासना, गुनंवासना मूल ॥ हरिहर देव खाशास
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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