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________________ (१३१ ) ॥ अथ श्रीसंभव जिन स्तवनं ॥ ॥ सुमति सदा दिनमें धरो ॥ ए देशी ॥ साहिब सांगलो वीनति, तूं बो चतुर सुजाण ॥ सनेही ॥ की धि सुजाने वीनती, प्रायें चढे ते प्रमाण ॥ स० ॥ १ ॥ संभव जिन अवधारीयें, महेर करी मेहेरबा न ॥ स० ॥ नवनय नाव नंजणो, नक्त वत्सल न गवान ॥ स० ॥ २ ॥ सं० ॥ तुं जाणे विणु वीनवे, तोहे में न रहाय ॥ स० ॥ श्ररथी होए उतावलो. दण वरसां सो थाय ॥ स० ॥ ३॥ सं० ॥ तूंतो मो टपमां रहे, विनव्यो पण विलंबाय ॥ स० ॥ एक धीरो एक कुलो, इम किम कारज थाय ॥ स० ॥ ४ ॥ सं० ॥ मन मान्यानी वातडी, सघले दीसे नेट ॥ स०॥ एक अंतर पेशी रहे, एक न पामे नेट | स० ॥ ५ ॥ सं० ॥ योग्य अयोग्य जे जोश्वा, ते अपू रणनुं काम स० ॥ खाइना जलने पण करे, गंगा जलनिज नाम ॥स० ॥ ६ ॥ सं० ॥ काल गयो बहु वा यदे, तेतो हवे न खमाय ॥ स० ॥ योगवाई ए फिरि फिरि, पामवि डर्लन थाय ॥ स० ॥ ७ ॥ सं० ॥ नेद नाव मूकी परो, मुशुं रमो एक मेक ॥ स०॥ मान विजय वाचक तणी, ए वीनति बे बेक ॥ स ० ॥ ॥सिं० ॥ ॥ अथ श्री अभिनंदन जिनस्तवनं ॥ ॥ ढाल ॥ मोतीडानी देशी ॥ प्रभु मुंऊ दरिसन म लियो लवे, मन थयुं हवे हलवे हलवे || साहिबा अजिनंदन देवा, मोहना अभिनंदन ॥ पुण्योदय
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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