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________________ (१२६) रीरी ॥ एक उहवाए गाढ, एक जो बोले हसीरी॥ ॥ ३ ॥ लोक लोकोत्तर वात, रीजवे दाय जुरी ॥ तात चक्रधर पूज्य, चिंता एह दुरी ॥४॥रीजववो एक सांश, लोक ते वात करे री॥ श्री नय विजय सुशिष्य, एहिज चित्त धरे री ॥ ५ ॥ इति । ॥अथ श्री मुनि सुव्रत जिन स्तवनं ॥ ॥ पांव पांचे वंदतां । ए देशी ॥ मुनि सुव्रत जिन वंदतां, अति नन्नसित तन मन थाय रे ॥ व दन अनोपम निरखतां, माहारां नव नवनां व जाय रे ॥१॥ माहारां नव नवनां उख जाय जग तगुरु जागतो ।। सुख कंद रे ॥ सुख कंद अमंद या पंद, परमगुरु जागतो ॥ सुः ॥ ए आंकणी॥ निशि दिन सूतां जागतां, हाडाथी न रहे दूर रे॥ जब नपगार संजारियें, तव उपजे आनंद पूर रे ॥ त० ॥ ज० ॥ सु० ॥२॥प्रनु उपकार गुणे जया, मन अ वगुण एक न समाय रे ॥ गुण गुण अनुबंधी दुथा, तेतो अक्ष्य नाव कहाय रे ॥ ते॥ ज०॥ सु॥३॥ अक्ष्य पद दीये प्रेम जे, प्रनुन ते अनुभव रूप रे॥ अदर स्वर गोचर नही, ए तो अकल अमात्य अरूप रे॥ए॥ज०॥सु०॥४॥ अदर थोडा गुण घणा, सऊनना ते न लिखाय रे ॥ वाचक यश कहे प्रेमथी, पण मनमांहे परखाय रे॥१०॥ ज० ॥ सु० ॥ ५ ॥ ॥ अथ श्री नमिनाथ जिन स्तवनं ॥ ॥श्रीनमि जिननी सेवा करतां,अलिय विधन सविदूरे
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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