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________________ (१२५) सा० ॥श्री नयविजय सुशिष्य, वाचक यश इणि परें कहे हो लाल ॥ ५ ॥ सा० ॥ इति ॥ ॥अथ श्री अरनाथ जिन स्तवनं ॥ ॥ आसपरा जोगी ॥ ए देशी ॥ श्री अर जिन जवजलनो तारु, मुफ मन लागे वारु रे ॥ मन मो हन स्वामी ॥ बांह ग्रही ए नविजन तारे, आणे शिवपुर थारे रे ॥ मनः॥१॥ तप जप मोह महा तोफाने, नाव न चालें माने रे॥ मन०॥ पण नवि जय मुफ हाथो हाथें, तारे ते में साथे रे ॥ मन ॥ ॥ २ ॥ जगतने स्वर्ग स्वर्गथी अधिकुं, ज्ञानीने फल दे रे ॥ मन ॥ काया कष्ट विना फल लहियें, म नमा ध्यान धरे रे । मन॥३॥ जे उपाय बहु विधनी रचना, योग माया ते जाणो रे ॥ मन ॥ शुक्ष् इव्य गुण पर्याय ध्यानें, शिव दिये प्रनु सप राणो रे ॥ मन ॥४॥प्रनु पद वलग्या ते रह्या ताजा, अलगा अंग न साजा रे ॥ मन ॥ वाचक यश कहे अवर न ध्यावं, ए प्रजुना गुण गानं रे ॥ मन ॥ ५॥ इति ॥ ॥ अथ श्रीमनिजिन स्तवनं ॥ ॥ नानि रायांके बाग ।। ए देशी ॥ तुज मुफ री जनी रीज,अटपट एह खरी री॥लटपट नावे काम, खटपट नांज परीरी॥१॥ मलिनाथ तुऊरीज, जन रीजें न हुए री॥ दोय रीजण नो उपाय,साहामुं कांश न जुए री॥२॥राराध्य लोक, सहुने समन श
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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