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________________ (७६) वैर बंमी पशु पंखी, तुज पद कमलने सेवता । जि० ॥ एक० ॥ ६ ॥ पंचवरणमयी जल थल केरां, फूल अमर वरसावता ॥ जि० ॥ एक० ॥ परखदा सात ते ऊपर बेसे, मुनि नर नारी देवता ॥ जि० ॥ एक ॥ ७॥ यावश्यक टीकायें पण उत्तर, थाये न कुसुम किलाम। ॥ जि ॥ एकः ॥ साधवी वैमा निकनी देवी, उनी सुमो दोय चूरणी॥जि०॥एका ॥ ७ ॥ बत्रीश धनुष अशोक ते चंचो चामर छत्र ध रावजो ॥ जि० ॥ एक० ॥ चनमुख रयण सिंहासन बेसी, अमृत वयण सुगावजो ॥ जि॥ एकाए॥ धर्मचक नामंगल तेजें, मिथ्या तिमिर हरावजोजि० ॥ एक ॥ गणधर वाणी जब अमें सुणीयें, तर देवबंदें सुहावजो॥जि ॥ एक ॥ १० ॥ देवतासुरि कवि साचुं बोले, जिहां जाशो तिहां पावशे ॥ जिन ॥ एक०॥ रंजादिक अपबरनी टोली, वंदी नमी गुण गावशे ॥ जि ॥ एका ॥ ११ ॥ अंतरयामी दरें विचरो, मुमचित्त जीनुं ज्ञानगुं ॥ जि ॥ एक० ॥ हृदयथकी जो दूरें जाउ, तो अमें कौतुक मानगुं ॥ जि ॥ एक० ॥ १२ ॥ सुलसादिक नव जिनपद दीg, अमयुं अंतर एवडो॥ जि ॥ एक ॥ वीत राग जो नाम धरावो, सदुने सरिखा तेवडो ॥ जि ॥ एक० ॥१३ ॥ ज्ञाननजरथी वात विचारो, रागद शा अम रूअडी॥ जि० ॥ एक० ॥सेवक रागें साहेब रीजो, धन धन त्रिशला मावडी ॥ जि ॥ एक
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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