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________________ ( ७२ ) ॥ ॥ होजो मुऊ परत ० ॥ ढुं किंकर बुं ताहरो जी ॥ पाम्यो तुंहिज देव, निरंतर करूं हवे सेव ० ॥ दिवस वव्यो हवे माहरो जी ॥ ७ ॥ विनति करूं बुं एह, धरजो मुजसुं नेह ॥ ० ॥ तमनें शुं कहियें वली वली जी ॥ श्रीलक्ष्मी विजय गुरु राय, शिष्य केसर गुण गाय ॥ ० ॥ अमर नमे तुज लली लली जी ॥ ८ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री संजवनाथजीनुं स्तवन ॥ ॥ साहिब सांगलो रे, संभव अरज हमारी ॥ नवोजव हुं जम्यो रे, न नही सेवा तुमारी ॥ नरय निगोदमां रे, तिहां हुं बहु जब जमीयो ॥ तुम विना ख सह्यां रे, होनिशि क्रोधें धमधमियो ॥ सा० ॥ ॥ १ ॥ इंडियवश पड्यो रे, पाल्यां व्रत नवि सुसें ॥ स पप नवि गण्या रे, हणीया यावर ढुंगें ॥ व्रत चित्त नवि धयां रे, बीजुं साधुं न बोल्युं ॥ पापनी गोठडी रे, तिहां में हइडलुं खोक्युं ॥ सा० ॥ २ ॥ चोर में करी रे, चनविह अदत्त न टाल्युं ॥ श्री जिन शुं रे, में नवि संयम पाल्युं ॥ मधुकर तली परें रे, शुद्ध न आहार गवेख्यो ॥ रसना लालचें रे, नीर स पिंक नवेख्यो ॥ सा० ॥ ३ ॥ नर नव दोहिलो रे, पामी मोह वश बडियो || परस्त्री देखिने रे, मुफ मन तिहां जइ अडियो । काम न को सखां रे, पापें पिंक में जरी ॥ सुध बुद्ध नवि रही रे, तेणें नवि तम तरी ॥ सा० ॥ ४ ॥ लक्ष्मीनी लालचें रे,
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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