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________________ (६७) गढ शोनित, मध्ये सिंहासने जगमगे ए॥ १६ ॥त्रु टक ॥ जगमगे जिन सिंहासने ए, वाजिन कोडा कोड ॥ चार निकायना देवता, ते सेवे बिदूं कर जोड ॥ १७ ॥ प्रातिहारज बाग्गुं रे, चोत्रीश अतिशयवंत ॥ समवसरणें विश्वनायक, शोने श्रीजगवंत ॥१७॥ सुर नर किन्नर मानवी, वेठी ते पर्षदा बार ॥ नपदे श दे अरिहंत जी, धर्मना चार प्रकार ॥ १ए ॥ दान शील तप नावना रे, टाले सघलां कर्म ॥ मंगल चोथु बोलीयें, जगमांहे श्री जिनधर्म ॥ २० ॥ ए चार मंगल गावशे जे, प्रनातें धरी प्रेम ॥ ते कोडि मंगल पामशे, नदयरत्न नांखे एम ॥ २१ ॥ इति ॥ ॥अथ श्री तीर्थमाला स्तवनं लिख्यते ॥ ॥ शत्रुजे पन समोसया, नला गुण नया रे ॥ सीधा साधु अनंत ॥ तीरथ ते नमुं रे ॥त्रण कल्या णिक तिहां थयां, मुगतें गया रे ॥ नेमीसर गिरनार ॥ ती॥ ॥ अष्टापद एक देहरो, गिरि सेहरो रे॥ जरतें जराव्यां बिंब ॥ ती० ॥ आबु चौमुख अतिन लो,त्रिवन तिलो रे ॥ विमल वसहि वस्तुपाल॥ता ॥ २ ॥ समेतशिखर सोहामणो, रलीयामणो रे ॥ सीधा तीर्थकर वीश ॥ ती० ॥ नयरी चंपा निरखी यें, हैये हरखीये रे ॥ सीधा श्री वासुपूज्य ॥ तो॥ ॥ ३ ॥ पूर्वदिशे पावा पुरी, कमें नरी रे ॥ मुक्ति गया महावीर ॥ ती० ॥ जेसलमेर.जुहारीयें, दुःख वारीयें रे ॥ अरिहंत बिंब अनेक ॥ ती० ॥ ४ ॥
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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