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________________ ( १९ ) जीवको मारना महापाप है और उस पाप करनेवालेको समझना चाहिये कि उसने अपने लिये एक नीची गति पसन्द करली है । यदि व्यापार करना हो, तो ऐसा करना चाहिये कि जिसमें नफा हो और नुकसान न हो तथा कर्ज न हो । उच्चस्थिति वही कही जायगी, जिसमें कर्ज अथवा दिवाला न हो । जो विना दिवालेकी और पूरी पूरी मुक्त-स्थिति है, वही उच्चस्थिति है । मुक्तस्थितिको भी जिसे कि हम मोक्ष कहते हैं इसी प्रकार ( कर्मादिके कर्जसे रहित ) समझनी चाहिये । कर्मसम्बन्धी विचार बहुत उलझनका है, उसका कुछ स्वरूप मैं अपने पहले न्याख्यानमें कह चुका हूं । 1 ' पिलग्रिम्स प्रोग्रेस' की रूपककथा के समान कर्मसिद्धान्तमें भाग्य ( नसीब ) अथवा क्रिश्चियन सिद्धान्तसे मिलता हुआ कुछ भी नहीं है । इसमें ऐसा भी नहीं माना है कि, मनुष्यजीव दूसरे किसीके बन्धनमें आ पड़ा है। इसी प्रकारसे यह में नहा कहा है कि वह अपनी किसी बाहिरी शक्तिके आधीन हो गया है । परन्तु एक आश यसेवा अपेक्षासे कर्मका अर्थ भाग्य भी हो सकता है । जो कुछ थोटासा करने के लिये हम स्वतंत्र हैं, वही करनेके लिये देव (पुरुष विशेष ! ) स्वतंत्र नहीं है । और हमें अपने कर्मोंका परिणाम अवश्य भोगना पड़ता है । कई एक कर्मपरिणाम बलवान् होते हैं और कई - एक साधारण होते हैं। कई एक परिणाम ऐसे होते हैं कि उनका फल भोगने के लिये बहुत समय चाहना पड़ता है और कई एक परिणाम ऐसे होते हैं कि, उनके भोगने के लिये थोड़ा समय लगता है । कई एक परिणाम ऐसे होते हैं कि, उनका क्षय बहुत लम्बे समयमें होता है और कई एकका बहुत थोड़े वक्तमें, पानीसे रन
SR No.010284
Book TitleJain Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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