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________________ ( जैन पाठावली (१३) कोई मारे वह दुस, (१४) भिक्षाचारी के कारण उत्पन्न होने वाला दुख, (१५) वस्तु की प्राप्ति नही होने पर होने वाला दुप,(१६) रोग सबधी दुख, (१७) तृण-घाम आदि की शय्या होने पर गरीर मे चुभने से होने वाला दुख, (१८) शरीर पर मल होने पर तत् सवधी दुख, (१९) निंदा अथवा स्तुति के मोके पर समभावना न रहे, इस सबधी दुःख (२०) बुद्धि का अहकार उत्पन्न हो इस सवधी दु ख (२१) बुद्धि में विकास न हो इसके लिए उत्पन्न होनेवाला दुख (२२) श्रद्धा के विचलित होने का प्रसग उत्पन्न होने पर तत्सवधी दुःख। । __स्वीकृत धर्म के मार्ग मे स्थिर रहने के लिए और कर्मों के बन्धन को काटने के लिए ऊपर जिन-जिन दु खो का, परीपही का वर्णन किया गया, उनको सरल भाव से सहन कर लेना ही उत्तमा है। उनके अतिरिक्त १क्षमा, २ रातोप, मरलता, ४ नम्रता, .. ५ ब्रहाचर्य, ६ मत्य, ७ सयम, ८ तप, त्याग, १० अपरिग्रह ये दा यतिधर्म कहे गये है। पहिले धर्म ध्यान में कही गई चार भावनाओं को अधिक विन्तत करकं बारह भावनाबो में अनुपित होना यह भो माधुधर्म है । से चारह भावनाएं ग प्रकार कही गई है--- (१) अनिन्य भावना, (२) अपारण भावना, ()नमा भावना, (४) एकल भाना, (५) अन्यत्व भावना, (६)अनि भावना, (७) आश्रय
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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