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________________ - ना तृतीय भाग ) तीसरे से ही प्रेम रक्खेंगे तो उनमे जगत् की भलाई का कोई भी काम नही हो सकेगा। उनसे ब्रह्मचर्य व्रत भी पालन नहीं किया जा सकता । अहिंसावत का पूरी तरह पालन करने वाला विवाह नहीं कर सकता । फिर दुराचार का सेवन तो कर ही कैसे सकता है ? ( गाधीजी के व्रतविचार से ) - ब्रह्मचर्य की मर्यादा :। तव प्रश्न खडा होता है कि विवाह क्या वर्ज है ? अथवा ' विवाहित को सत्य की प्राप्ति कभी हो ही नहीं सकती ? वह । अपना बलिदान नही कर सकता ? इसके लिए एक ही मार्ग । है, और वह यह है कि विवाहित को अविवाहित बन जाना । चाहिए । विवाहित स्त्री-पुरूप, एक दूसरे को भाई-बहन सम बने लग जाय । ऐसा करने से सब चीजो से छुटकारा मिल __जाता है । जगत् की स्त्रीमात्र बहिन है, माता है, लड़की है, यह विचार ही मनुष्य को एक दम ऊँचा ले जाने वाला है। - इसमें पति-पत्नी को कुछ खोना नहीं पड़ता, उलटे उनके स्नेह में वृद्धि होती है। जहा म्वार्थ से भरा मसार होता है वहाँ कलह होता है। (गाधीजी के व्रतविचार गे) लेकिन जो लोग इस आदर्श तक भी नहीं पहुंच सकते, उनके लिए दूसरा आदर्श बतलाया गया है । वह आदर्श है 'स्वस्त्रीसतोप' । अर्थात् अपनी पत्नी को छोडकर संसार की समस्त स्त्रियों को माता एव वहिन के समान समझना । स्त्रियो के लिए इने यो कह सकते हैं अपने पति को छोडकर ससार के पुरुष मात्र को पिता, भाई या पुत्र के समान समझना । इम आदर्श का आशय यह है कि श्रावक नीतिपूर्वक स्वीकार की
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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