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________________ ६४) ( तृतीय भाग पाठ उन्नीसवाँ चौथा ब्रह्मचर्यव्रत ( स्वस्त्री संतोष-परस्त्री विरमण ) व्याख्या : जो ब्रह्म न हो वह ब्रह्म कहलाता है । जिसका पालन करने या अनुसरण करने से सद्गुण वढे उसे ब्रह्म कहते हैं । और जिससे सद्गुण न वढकर दोप वढे वह अब्रह्म है | अब्रह्म का त्याग करके ब्रह्म का आचरण करना ब्रह्मचर्य कहलाता है । अपनी समस्त इन्द्रियो पर काबू रखना, किसी भी इन्द्रिय को विपयो की ओर जाने से रोकना ब्रह्मचर्य है | 2 ब्रह्मचर्य की महत्ता : मनुष्य का जीवन सत्य का आचरण करने के लिए ही है। जो सत्य के लिए मिहनत करता है, वह किसी भी दूसरी वस्तु की अगर इच्छा करे तो व्यभिचारी ठहरता है । ऐसी स्थिति में विकार की आराधना तो की ही कैसे जा सकती है? एक भी ऐसा उदाहरण नही मिल सकता कि किसी ने भोग-विलाम से सत्य की प्राप्ति की हो । अहिसा का पालन भी सत्य के बिना अशक्य है। हमा अर्थात् जगत् के प्राणी माय पर प्रेम । जहाँ एक स्त्री को मुत्य के लिए प्रेम हो और पुरुष को स्त्री के लिए प्रेम हो, यहाँ दूसरो के लिए क्या बच रहा ? वे दोनों अगर किसी
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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