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________________ (ततीय भाग - - शास्त्रज्ञान के तीन भेद है:-- (१) सूत्रज्ञान (२) अर्थज्ञान (३) उभयज्ञान । (१) ज्ञान प्राप्त करते समय अकसर शब्द के उच्चारण की कठिनाई आती है। शुद्ध उच्चारण करने का भी खयाल नही रक्खा जाता । अशुद्ध उच्चारण करना शास्त्रकारो ने बडे से वडा दोप माना है। अतएव शास्त्र का पाठ सिखाते समय सिखाने वालो को और सीखने वाले को उच्चारण की ओर खूब ध्यान देना चाहिए । `खीखने के बाद भी उतावल नही करना चाहिए । ऐसा करने से अशुद्धि होते देर नहीं लगती। अक्षर भी उलट-पलट हो जाते है और पद के पद छूट जाते है । और फिर अर्थ समझने में भी भूल हो जाती है। (२) ज्ञान प्राप्त करते समय उच्चारण की शुद्धता के अतिरिक्त्त ध्यान की भी आवश्यकता है। पाठ का उच्चारण करते समय अगर पाठ के अर्थ में मन वचन काय को लगा न दिया तो पाठ करना वेकार हो जाता है। ऐसा न करने से न तो पाठ करने वाले को ही आनन्द आता है और न किया हुआ परिश्रम सार्थक होता है । एक ध्यान मे मामायिक करने पर वेडा पार हो जाता है । ध्यान के अभाव में किया हुआ तप भी समार मे घुमाता है। इसलिए जान प्राप्त करते समय इस तरफ भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। (३) तीगरी वात है अभ्याम के समय की। नियम नही हो तो अभ्यास में प्रमाद होता है। अत जान प्राप्त करने वाले अभ्यासी चा विद्यार्थी के लिए नियम की बहुत आवश्य-- कता है । अभ्यास के लिए जो समय नियत है, उस समय को अगर मोज-मजा करने या किसी दूसरे काम में बिता दिया
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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