SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __जैन पाठीवली) ___ राग का क्षय हुआ वही ईश्वर है, इस रीति से ईश्वर होने का प्रत्येक आत्मा को अधिकार है। सत्ता की दृष्टि से जीवमात्र ईश्वर ही है । जैसे सूर्य का प्रचण्ड प्रकाश वादलो द्वारा बैंक जाता है, वैसे ही आत्मा का प्रकाश भी अज्ञानरूपी आवरण से ढका हुआ है और आत्मा को इन आवरणो को तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। (२) इस प्रश्न की मीमासा करते हुए जैन-दर्शन कहता है कि" जगत् नियमित और व्यवस्थित चलता है इसका कारण वस्तु का स्वभाव है, वस्तु के स्वभाव अनुसार काम हुआ ही करता है।" इस प्रकार विवेचन करके वह कर्मवाद का बयान करता है और कहता है कि - ईश्वर (कर्तृत्व) वाद मानने की आवश्यकता नही है, किन्तु कर्मवाद मानने की आवश्यकता है । शुभकर्म करेगा तो उसका फल शुभ मिलेगा और अशुभ कर्म करेगा तो उसका फल अशुभ मिलेगा । शुभाशुभ के फल मे विमोहित नही होते हुए यदि आत्मा मूलस्वभाव की ओर प्रगति करेगा तो अन्त मे ईश्वर होगा। कर्म-रहित होकर निर्मल होकर, सिद्ध होगा। ऐसे अनेक सिद्ध हो गये हैं, होते है और होगे, इसलिये सत्यमार्ग पर पुरुषार्थ करो और कर्म के वधनो को काटो। भगवद्-गीता के पाचवे अध्याय का १४ वा और १५ वा श्लोक भी ऊपर के सिद्धान्त का ही समर्थन करते है।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy