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________________ ( तृतीय भाग को स्थान नही है। अर्थात् जैन ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नह मानते है, ईश्वर तो निरजन, निराकार और सच्चिदानन रूप है। ईश्वरवाद का आधार-- ईश्वरवाद अर्थात् इस सृष्टि का कर्ता अथवा व्यवस्था पक ईश्वर है ऐसी मान्यता । जैसे घर, समाज अथवा देश की व्यवस्था चलाने के लिए | किसी नेता की आवश्यकता हुआ करती है। दुकान अथवा व्यवसाय मे व्यवस्थापक की आवश्यकता हुआ करती है, उसी । प्रकार नियमित और व्यवस्थित रीति से गति करनेवाली इस सृष्टि की व्यवस्था का भी कोई शक्तिशाली नायक अथवा व्यवस्थापक अवश्यमेव होना चाहिये। दूसरी बात यह जैसे कि' घट-पट आदि पदार्थों का बनाने वाला हम अपनी आँखो से देखते है वैसे ही इस चराचर जगत का भी रचयिता कोई अवश्य होना चाहिए और जो रचयिता है, वही ईश्वर है। इन दो तर्कों के आधार पर ही जगत्-कर्तृत्ववाद की मान्यता अपना अस्तित्व रखती है । जैन तत्त्वज्ञान क्या कहता है ? जैन तत्त्वज्ञान कहता है कि (१) ईश्वर का अर्थ वीतराग लिया जाय तो वीतरांग के साथ सृष्टि रचने रूप जजाल का सबंध नही बैठता है। रागा के साथ ही यह सव जम सकता है और यदि रागी को ही ईश्वर मान लिया जाय तो उसे" ईश्वर" कसे कहा जाय? जिसके
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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