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________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ६५ आर्य शय्यम्भव ने किया १५ | शेप आगमो के निर्यूहक श्रुत- केवली भद्रबाहु है । प्रज्ञापना के कर्त्ता श्यामार्य, अनुयोग द्वार के आर्य-रक्षित और नन्दी के देवगण क्षमाश्रमण माने जाते है । भाषा को दृष्टि से आगमो को दो युगो मे विभक्त किया जा सकता है । ई० पू० ४०० से ई० १०० तक का पहला युग है । इसमे रचित अंगो की भाषा अर्व मागधी है । दूसरा युग ई० १०० से ई० ५०० तक का है । इसमे रचित या निर्यूढ आगमों को भापा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है ११ अर्द्धमागधी और जैन महाराष्ट्री प्राकृत मे जो अन्तर है, उसका सक्षिप्त रूप यह है :-- शब्द -भेद १ - अर्ध मागधी मे ऐसे प्रचुर शब्द है, जिनका प्रयोग महाराष्ट्री में प्राय उपलब्ध नही होता, यथा— अज्झत्थिय, अज्भोवण्ण, अणुवीति, आधवणा, आधवेत्तग, आणापाणू, आवीकम्म, कण्हुइ, केमहालय, दुरूढ, पंचत्थिमिल्ल, पउकुव्व, पुरत्यिमिल्ल, पोरेवच्च, महतिमहा लिया, वक्क, विउस इत्यादि । २-- ऐसे शब्दो की सख्या भी बहुत बडी है, जिनके रूप अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते है । उनके कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है अर्धमागधी अभियागम आउटण आहरण उप्पि किया कीस, केस केवच्चिर गेहि चियत्त छच्च महाराष्ट्री अभाअम आउचण उआहरण उवरिं, अवरिं किरिया केरिस किअच्चिर गिद्धि चइअ छक्क जाया णिगण, णिगिण ( नम) निगिणिण (नागण्य ) तच्च (तृतीय) तच्च (तथ्य ) गच्छा दुवाल सग दोच्य नितिय निएय पडुप्पन्न जत्ता नग्ग णग्गत्तण तइअ तच्छ चिइच्छा वारसग दुइअ णिच्च णिअअ पन्चुप्पण्ण
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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