SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा का इतिहास [२७ महाभिनिष्क्रमण वे जब २८ वर्प के हुए तव उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । उन्होने तत्काल श्रमण बनना चाहा पर नन्दिवर्धन के आग्रह से वैसा हो न सका। उनने महावीर से घर में रहने का आग्रह किया। वे उसे टाल न सके। दो वर्ष तक फिर घर मे रहे। यह जीवन उनका एकान्त-विरक्तिमय वीता। इस समय उन्होने कच्चा जल पीना छोड दिया, रात्रि-भोजन नही किया और ब्रह्मचारी रहे१९ । ३६ वर्ष की अवस्था ने उनका अभिनिष्क्रमण हुआ। वे अमरत्व की सावना के लिए निकल गए। आज से सब पाप-कर्म अकरणीय है-इस प्रतिज्ञा के साथ वे श्रमग वने२० । नान्ति उनके जीवन का साव्य था। क्रान्ति था उसका सहचर परिणाम । उन्होने वारह वर्ष तक शान्त, मौन और दीर्घ तपस्वी जीवन विताया। साधना और सिद्धि जहाँ हित है, अहित है ही नही-ऐसा धर्म किसने कहा ? जहाँ यथार्थवाद है, अर्थवाद है ही नही-ऐसा धर्म किसने कहा ? यह पूछा-श्रमणो ने, ब्राह्मणो ने, गृहस्थो ने और अन्यान्य दार्शनिको ने जम्बू से और जम्बू ने पूछा सुधर्मा से । यह प्रश्न अहित से तपे और अर्थवाद से ज्बे हुए लोगो का था। जम्बू बोले -गुरुदेव ! मेरो जिज्ञासाएं उभरती आ रही है। लोग भगवान् महावीर के धर्म को गहरी श्रद्धा से सुन रहे है। उनके जीवन के बारे मे वडे कुतूहल भरे प्रश्न पूछ रहे है। उनने मुझमे भी कुतूहल भर दिया है। मैं उनके जीवन का दर्शन चाहता हूँ। आपने उनको निकटता से देखा है, सुना है, निश्चय किया है, इसलिए में आपसे उनके ज्ञान, श्रद्धा और शील के बारे मे कुछ सुनना चाहता हूँ। मुधर्मा बोले-जम्बू । जिस धर्म से दूसरे लोगो को और मुझे महावीर के जीवन-दर्शन की प्रेरणा मिली है, उसका महावीर के पौद्गलिक जीवन से लगाव नही है।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy