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________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १५ न गीत सुने। में मौत की लम्बी परम्परा से परिचित हूँ। यह साम्राज्य मुझे नही लुभा सकता। __ सम्राट को करुणापूर्ण नाँसो ने अभियुक्त को अभय बना दिया। मृत्युदड उसके लिए केवल निक्षा-प्रद था। सम्राट की अमरत्व-निष्ठा ने उसे मौत से सदा के लिए उबार लिया। श्रामण्य की ओर सम्राट भरत नहाने को थे। स्नान-घर में गए, अगूठी सोली। अंगुली को गोभा घट गई। फिर उने पहना, गोभा बढ़ गई। पर पदार्थ से शोभा बढ़ती है, यह नौन्दर्य निम है-उस चिन्तन मे लगे और लगे महज सौन्दर्य को ढूंढने । भावना का प्रवाह आगे वटा । पर्म-मल को धो डाला। क्षगों मे ही मुनि वने, वीतराग वने और केवली बने। भावना की गुद्धि ने व्यवहार को सीमा तोड दी। न वेप बदला, न राज-प्रानाद से बाहर निकले फिन्तु इनका मानरिक संयम इनसे बाहर निकल गया और वे पिता के पथ पर चले पड़े। ऋषभदेव के पश्चात् काल का चौथा 'दुख-मुखमय' चरण आया। व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड सागर तक रहा। इस अवधि मे कर्म-क्षेत्र का पूर्ण विकास हुआ और धर्म-सम्प्रदाय भी बहुत फले-फूले। जैन धर्म के वीस तीर्थङ्कर और हुए, यह बारा दर्शन प्राग ऐतिहासिक युग का है। इतिहास अनन्त-अतीत की चरग-धूलि को भी नही छू सका है। वह पाँच हजार वर्ष को भी कल्पना को आँख से देख पाता है। सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना वौद्ध साहित्य का जन्म-काल महात्मा बुद्ध के पहले का नही है। जैन साहित्य का विशाल भाग भगवान् महावीर के पूर्व का नही है। पर थोडा भाग भगवान् पावं की परम्परा का भी उसी मे मिश्रित है, यह बहुत सभव है । भगवान् अरिष्टनेमि की परम्परा का साहित्य उपलत्र नही है।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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