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________________ ८] जैन परम्परा का इतिहास बसाया । वह बहुत विशाल था और उसका निर्माण देवों ने किया था। उसका नाम रखा विनीता-- अयोध्या। ऋषभ राजा बने। शेष जनता प्रजा बन गई । वे प्रजा का अपनी सन्तान की भॉति पालन करने लगे। असाधु लोगो पर शासन और साधु लोगो की सुरक्षा के लिए उन्होने अपना मन्त्रि-मण्डल बनाया। चोरी, लूट-खसोट न हो, नागरिक जीवन व्यवस्थित रहे इसके लिए उन्होंने आरक्षक-दल स्थापित किया। राज्य की शक्ति को कोई चुनौती न दे सके, इसलिए उन्होने चतुरंग सेना और सेनापतियो की व्यवस्था की । साम, दाम, भेद और दण्ड-नीति का प्रवर्तन किया। परिमाण-थोडे समय के लिए नजरबन्द करना-क्रोधपूर्ण शब्दो मे अपराधी को 'यही बैठ जाओ' का आदेश देना। मण्डल-बन्ध -नजरबन्द करना-नियमित क्षेत्र से बाहर जाने का आदेश देना। चारक-कैद मे डालना। छविच्छेद-हाथ-पैर आदि काटना । ये चार दण्ड भरत के समय मे चले । दूसरी मान्यता के अनुसार इनमे से पहले दो ऋपभ के समय मे चले और अन्तिम दो भरत के समय । ____ आवश्यक नियुक्ति ( गाथा २१७, २१८ ) के अनुसार बन्ध-(बेडी का प्रयोग ) और घात-(डडे का प्रयोग ) ऋषभ के राज्य मे प्रवृत्त हुए तथा मृत्यु-दण्ड भरत के राज्य मे चला। ___औषध को व्याधि का प्रतिकार माना जाता है-वैसे दण्ड अपराध का प्रतिकार माना जाने लगा। इन नीतियो मे राजतन्त्र जमने लगा और अधिकारी चार भागो मे बँट गए। आरक्षक-वर्ग के सदस्य 'उग्न', मन्त्रिपरिषद् के सदस्य ‘भोग', परामर्शदात्री समिति के सदस्य या प्रान्तीय प्रतिनिधि 'राजन्य' और शेष कर्मचारी 'क्षत्रिय' कहलाए । ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी चुना । यह क्रम राज्यतन्त्र का अग बन गया । यह युगो तक विकसित होता रहा।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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