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________________ जैन परम्परा का इतिहास [१४३ विना मध्यस्थ भाव से उसके उपशमन, क्षमायाचना आदि का प्रयत्न करना, ये मेरे साधर्मिक किस प्रकार कलह-मुक्त होकर समाधि सम्पन्न हो, ऐसा चिन्तन करते रहना२४) दिनचर्या अपर रात्रि में उठ कर आत्मालोचन व धर्म जागरिका करना-यह चर्या का पहला अग है"। स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना२६ । आवश्यक-अवश्य करणीय कर्म छह है : १-सामायिक-समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन । २-चतुर्विशस्तव -चौबीस तीथंकरो की स्तुति । ३-वन्दना-नाचार्य को दगावत-वन्दना । ४-प्रतिक्रमण-कृत दोपो की आलोचना । ५-कार्योत्सर्ग-काया का स्थिरीकरण-स्थिर-चिन्तन । ६-प्रत्याख्यान-त्याग करना । इस आवश्यक कार्य से निवृत्त होकर सूयर्दोय होते-होते मुनि भाण्डउपकरणो का प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे। उसके पश्चात् हाथ जोड कर गुरु से पूछे-मैं क्या करूं? आप मुझे आना दें-मैं किसी की सेवा में लगें या स्वाध्याय मे? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो अम्लान-भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे२७ । दिनचर्या के प्रमुख अग है-स्वाध्याय और ध्यान । कहा है : स्वाध्यायाद् ध्यानमव्यास्तां, ध्यानात् स्वाव्याय मामनेत् । घ्यान - स्वाध्याय - सपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ॥ स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान करे और ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय । इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय के क्रम से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है । आगमिक काल-विभाग इस प्रकार रहा है-दिन के पहले पहर मे स्वाध्याय करें, दूसरे में ध्यान, तीसरे मे भिक्षा-चर्या और चौथे मे फिर स्वाध्याय रात के पहले पहर मे स्वाध्याय करे, दूसरे मे ध्यान, तीसरे मे नीद ले और चौथे मे फिर स्वाध्याय करे। पूर्व रात में भी आवश्यक कर्म करे३० । पहले पहर मे प्रतिलेखन ३१ करे
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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