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________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १२५ प्राणीमात्र अपने अधिकारो मे रमणशील और स्वतन्त्र है, यही उनकी सहज सुख की स्थिति है। सामाजिक सुख-सुविधा के लिए इसकी उपेक्षा की जाती है, किन्तु उस उपेक्षा को शाश्वत-सत्य समझना भूल से परे नहीं होगा। दश प्रकार का संयम३९, दश प्रकार का सवर४० और दश प्रकार का विरमण है वह सव स्वात्मोन्मुखी वृत्ति है, या वह निवृत्ति है या है निवृत्तिसवलित प्रवृत्ति। दश आशसा के प्रयोग संसारोन्मुखी वृत्ति है४९ । जैन-सस्कृति में प्रमुख वस्तु है 'दृष्टिसम्पन्नता'-सम्यक् दर्शन । ससारोन्मुखी वृत्त अपनी रेखा पर और आत्मोन्मुखी वृत्ति अपनी रेखा पर अवस्थित रहती है, कोई दुविधा नही होती। अव्यवस्था तब होती है, जब दोनों का मूल्यांकन एक ही दृष्टि से किया जाय। ससारोन्मुखी बृत्ति मे मनुष्य अपने लिए मनुष्येतर जीवो के जीवन का अधिकार स्वीकार नहीं करते। उनके जीवन का कोई मूल्य नही आँकते। दुख मिटाने और सुखी बनाने की वृत्ति व्यवहारिक है, किन्तु क्षुद्र-भावना, स्वार्थ और सकुचित वृत्तियो को प्रश्रय देनेवाली है। आरम्भ और परिग्रह-यै व्यक्ति को धर्म से दूर किये रहते है४२ । बड़ा व्यक्ति अपने हित के लिए छोटे व्यक्ति की, वडा राष्ट्र अपने हित के लिए छोटे राष्ट्र की निर्मम उपेक्षा करते नही सकुचाता। बड़े से भी कोई वडा होता है और छोटे से भी कोई छोटा। वडे द्वारा अपनी उपेक्षा देख छोटा तिलमिलाता है, किन्तु छोटे के प्रति कठोर बनते वह नही सोचता । यहाँ गतिरोध होता है। जैन विचारधारा यहाँ बताती है-दुःखनिवर्तन और सुख-दान की प्रवृत्ति को समाज को विवशात्मक अपेक्षा समझो, उसे ध्रुव-सत्य मान मत चलो। सुख मत लूटो, दु ख मत दो--इसे विकसित करो। इसका विकास होगा तो दुःख मिटाओ, सुखी बनाओ की भावना अपने आप पूरी होगी। दुःखी न बनाने की भावना बढेगी तो दुःख अपने आप मिट जाएगा । सुख न लूटने की भावना दृढ होगी तो सुखी बनाने की आवश्यकता ही क्या होगी ? सक्षेप में तत्त्व यह है-दु.ख-सुख को ही जीवन का ह्रास और विकास
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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