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________________ १२०] जैन परम्परा का इतिहास कामना ( २ ) परलोकाशंसा-प्रयोग-'मैं देव होऊ'-ऐसी परलोक की इच्छा करना ( ३) जीविताशंसा-प्रयोग-'मैं जीवत रहूँ'-ऐसी इच्छा करना (४) मरणाशंसा-प्रयोग-'मैं शीघ्र मरू'-ऐसी इच्छा करना और (५) कामभोगाशंसा-प्रयोग-कामभोग की कामना करना । ___ इनमें से कुछेक अतिचारो के वर्णन से केवल आध्यात्मिकता की पुष्टि होती है। किन्तु इसमे अधिकांश ऐसे है जो आध्यात्मिकता की पुष्टि के साथसाथ जीवन के व्यावहारिक पक्ष को भी समुन्नत बनाए रखते है । दिगन्नत के अतिचारो में आक्रमण, साम्राज्य-लिप्सा और भोग-विस्तार का भाव दिया है। ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा में जाने के साधनो पर अंकुश लगाया गया है। इन ब्रतो और अतिचार-निषेधो का आज के चारित्रिक मूल्यो को स्थिर रखने में महत्त्वपूर्ण योग है। डा० अल्टेकर ने इसका अंकन इन शब्दो में किया है - "हमारे देश मे आने वाले यूनानी, चीनी एव मुसलमान यात्रियों ने बड़ी बड़ी प्रशसात्मक बातें कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि सदाचार और तपस्या सम्बन्धी भगवान् महावीर आदि महात्माओ के सिद्धान्त हमारे पूर्वजों के चरित्र मे मूर्तिमन्त हुए थे। हम में यह दुर्बलता जो आज दिखाई पड रही है, वह विदेशी दासता के कारण ही उत्पन्न हुई है। इसलिए समाज से भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए आज अणुव्रत के प्रचार को अत्यन्त आवश्यकता है ३१ ।" भगवान् महावीर के युग में जैन-धर्म भारत के विभिन्न भागो मे फैला । सम्राट अशोक के पुत्र सम्प्रति ने जैन-धर्म का सन्देश भारत से बाहर भी पहुँचाया। उस समय जैन-मुनियों का विहार-क्षेत्र भी विस्तृत हुआ। श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डे ने अहिसक-परम्परा की चर्चा करते हुए लिखा है"ई० सन् की पहली शताब्दी मे और उसके बाद के हजार वर्षों तक जैन-धर्म मध्य पूर्व के देशो में किसी न किसी रूप में यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म को प्रभावित करता रहा है।" प्रसिद्ध जर्मन इतिहास-लेखक बान क्रेमर के अनुसार मध्यपूर्व मे प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रश है। इतिहास-लेखक जी० एफ० मूर लिखता है कि "हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व ईराक, श्याम और फिलस्तीन से जैन-मुनि और बौद्ध भिक्षु
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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