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________________ १०४] जैन परम्परा का इतिहास मघवा गणी के स्वर्ग-वास के समय कालुगणी के मनोभावो का आकलन करते हुए आपने गुरु-शिष्य के मधुर सम्बन्ध एव विरह-वेदना को जो सजीव वर्णन किया है, वह कवि की लेखनी का अद्भुत चमत्कार है : "नेहडला री क्यारी म्हारी, मूकी निराधार । इसडी कां कोधी म्हारा, हिवड़े रा हार ॥ चितडो लाग्यो रे, मनड़ो लाग्यो रे । खिण खिण समरू', गुरु थांरो उपगार रे॥ किम बिसराये म्हारा, जीवन - आधार । विमल विचार चारू, अब्बल आचार रे॥ कमल ज्यूँ अमल, हृदय अविकार । आज सुदि कदि नही, लोपी तुज कार रे ॥ बह्यो बलि बलि तुम, मीट विचार । तो रे क्यां पधाख्या, मोये मूको इह वार रे ॥ स्व स्वामी रु शिष्य-गुरु, सम्बन्ध विसार ९४ । पिण सांची जन-श्रुति, जगत् मझ र रे॥ एक पक्खी प्रीत नही, पडै कदि पार । पिऊ पिऊ करत, पर्पयो पुकार रे॥ पिण नही मुदिर नै, फिकर लिगार १५॥ जैन-कथा-साहित्य में एक प्रसग आता है। गजसुकुमार, जो श्रीकृष्ण के छोटे भाई थे, भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षित बन उसी रात को ध्यान करने के लिए श्मशान चले जाते हैं। वहाँ उनका श्वसुर सोमिल आता है। उन्हें साधु-मुद्रा मे देख उसके क्रोध का पार नही रहता। वह जलते अंगारे ला मुनि के शिर पर रख देता है। मुनि का शिर खिचडी की भॉति कलकला उठता है। उस दशा में वे अध्यात्म की उच्च भूमिका में पहुँच 'चेतन-तनभिन्नता' तथा 'सम शत्रौ च मित्रे च' की जिस भावना मे आरूढ़ होते है, उसका साकार रूप आपकी एक कृति में मिलता है। उसे देखते-देखते द्रष्टा स्वयं आत्म-विभोर बन जाता है। अध्यात्म की ऊत्ताल ऊर्मियाँ उसे तन्मय किए देती है :
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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