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________________ जैन परम्परा का इतिहास इति यावदिमा गगनाङ्गणतो, मरुतां विचरन्ति गिर शिरसः । अपनेतुमिमांश्चिकुरा नकरोद्, वलमात्मकरेण स तावदयम् ॥७५॥ अप्रकाशित महाकाव्य की गरिमा से लोग अवगत हो इस दृष्टि से उसके कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत किये गए है । मुझे आशका है कि विषय अधिक लम्बा न हो जाय । फिर भी काव्यरस का आस्वाद छोडना जरा कठिन होता है। खैर, काव्य-पराग का थोडा-सा आस्वाद और चख लें । [ ey अहह अपि । ४ 11 चुल्लिगृहेपू वधूकर प्रथितभस्म महावसना गुरुतरामपि जानति यामिनी, हुतभुजोपि हिमै स्मदुत्ता इव कवि यहाँ पर रात्रि जागरण का वर्णन करता हुआ सर्दी की विभीपिका पैदा करता है । कवि विश्व की और अचेतन पदार्थो का निकटता से अनुभव करता है। उनमे वह किसी की भी उपेक्षा नही करता । मरुस्थल के मुख्य वाहन ऊँट तो भूले भी कैसे जा सक्ते है | उनके बारे मे वह बड़े मजेदार ढंग से कहता है पाठको के दिलो मे भी गोद मे रमने वाले चेतन भरे यथा रोहति भूरि रावा, निरस्यमाने रवणास्तथासन् । सदैव सर्वाङ्ग वहिर्मुखानां हिताहितज्ञानपरांगमुखत्वम्७५ ।। यहाँ हमने अतीत के साहित्य पर एक सरसरी नजर डाली है या यो कहिए कि 'स्थाली पुलाक' के न्यायानुसार हमने कुछ एक स्थलो की परीक्षा की है । सिर्फ सुन्दर अतीत की रट लगाने से भविष्य उज्ज्वल वना नही करता । इसलिए ताजी दृष्टिवालों को वर्तमान देखना चाहिए । जिस युग मैं यह आवाज बुलन्द हो रही है कि संस्कृत मृत भाषा है, उस युग में भी जैन उसे सजीव बना रहे है | आज भी नये काव्य, टीकाए प्रकरण और दूसरे ग्रन्थ बनाए जा रहे है | अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी इस विषय मे बहुत वडा प्रयत्न कर रहे है। आचार्य श्री के अनेक शिष्य आशुकवि है । बहुत-सी माध्वियां वडी तत्परता से सस्कृत के अध्ययन में सलग्न है । सभी
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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