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________________ ARMAANIMAORMiANAMAHARAMHAHIMALAMANTARNAMAAVARTAASwimminenoNAMMAL दयासागर नेमिनाथ । [१८७ क्या विवाह करते हैं ? यह तो विवाहका केवल मात्र स्वांग है। विवाह तो हृदयदान है। मस्त्रियो ! कुमारी कन्या जब किसीको अपना सर्वम् समर्पण कर चुकती है तो उसका अपनी आत्मा, मन और शरीर पर कुछ भी अधिकार नहीं रहना । वह तो इन सबका दान कर चुकी है। उपके पास फिर अपना रहता ही क्या है जो वह दूभरेको दे। जो हृदय एकवार समर्पण कर दिया गया है, जो एकवार किसीको अपना भाग्यविधाता बना चुकी है. वह हृदय फिर दृमरके देने योग्य नहीं रहता। भारतीय कुमारिकाएं एकदा हो वाण करती हैं और जिसको वे इच्छ पूर्वक वरण का लेनी हैं रमे त्यागका अन्य पुरुषके संगको स्वप्न में भी इच्छा नहीं करती . मैं अपना शरीर कुमार नेमिनाथको समर्पण कर चुकी हूं उनके अतिरिक्त संभा के सभी पुरुष मेरे लिए पिता और भाईको समान है। आर्यकुमारियों के प्रणको वनकी लकीर समझना चाहिए। अपने प्रणके माम्हने वे अपने जीवनका बलिदान करने में जा नहीं हिचकतीं। मखियो ! तुम सब मुझसे अपने उन जीवन सर्वम्व नमिकुमारजीसे स्नेह त्यागने की बात क्या कह दी हों। क्या यह भी संभव हो सकता है ? आर्यकुमारियों के साम्हने तुम यह कैसा मादर्श उपस्थित कर रही हों ? मुझे मृत्यु स्वीकार है लेकिन यह कभी स्वीकृत नहीं हो सकता। मानव-जीवनका कुछ आदर्श हुआ करता है। अपने मादर्शक लिए जीवनका उत्सर्ग कर देना भारतकी महिलामोंने सीखा है, मेरा
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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