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________________ momwomanAmw HORIVINOMANIRONAMOnewwwwwwwwwwwnnnnniver १५४ ) जैन युग-निर्माता। नष्टमृष्ट हो जायंगे, तथा असंख्य प्राणियों का प्राणघात होगा, अनेक प्राणियों को मसघ कष्ट होगा और वह भी केवल मात्र मेरे कारण । मुझे अपने कष्टोकी कुछ भी चिन्ता नहीं है। कष्ट मेरा कुछ भी नहीं कर सकते; किन्तु इन क्षुद्र प्राणियों के प्राण निष्प्रयोजन ही पीड़ित हों यह मुझसे कदापि नहीं देखा जा सक्ता । इस प्रकार करुणा भाव धारण कर उन योगिराजने अपने बाएं पैके अंगूठेको किंचिंत नीचे दवाया। मात्म शक्ति-त्यागकी शक्ति, तपश्चरणकी शक्ति मचिंतनीय है, मनन्त है, साथ है। जो कार्य संपूर्ण पृथ्वी का मधिपति पम्राट इन्द्र तथा नरेशरोंअपनी अखण्ड आज्ञा परिचलित करनेवाला चक्राति बहुत शारीरिक बससे सांसारिक वीरोंको कम्भित कर देनेवाला नखंड बाहु, अनन्त काळमें अगाध उद्योगके द्वारा कर सकनेको समर्थ नहीं हो सकता, वही कार्य और उससे अनंत गुणा अधिक कार्य तपस्वी, मह त्मा, योगी दिगम्बर मुनि अपनी बढ़ी हुई आत्मशक्तिके प्रमाग्से क्षण मात्रमें कर सकता है। असंख्य संपत्ति शालियों की शक्ति, असंख्य राजाओंस सेवित सम्राटकी शक्ति असंख्य वीरोंसे सेवित वीरकी शक्ति उस योगीकी अलौकिक शक्तिके सामने समुद्र में मूंदके समान है। योगिरानके अंगूठे मात्रके दबानेसे ही अखंड परिभम द्वारा किंचित पाको उठाया हुगा पर्वत पातालकोकमें प्रवेश करने लगा। क्याननका समस्त शरीर संकुचित हो गया, सेपकी धारा बहने लगी, बसनेको पृथ्वीसकर पता हुमा देखकर उसका मुख चिंतासे म्हाना
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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