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________________ तपस्वी वालिदेव । [१५३ mewaunuwaWANAWNawinAINMENownwaonmamawaanROWNIAAV लंकेश ज्ञानवान व्यक्ति था, उसे शास्त्रोंका अच्छा ज्ञान था। वह बानता था कि महत्वशाली ऋद्धि प्राप्त मुनिराजोंके फारसे विमान नहीं जा सकता है। वह मुनियों की शक्ति से अवगत था, किन्तु हायरे अभिमान ! तु मानवोंकी निर्मल ज्ञानदृष्टिको प्रथम ही धुंधला कर देता है। तेरी उपस्थितिमें मनुष्यके हृदयका विवेक विलग होजाता है, और माभिमानी प्रेतको हेयादेयका किञ्चिन भी बोर नहीं रहता । अभिमानकुमित्रकी ममतामें पड़े हुए लकेशके हृदयसे विवेक विलय होगया । वह विचारने लगा "ओइ ! यह वही वालिदेव है, जिसने मेरा उस समय मान भंग किया था और आज भी मुझे पराजित करने के लिए ही इसने मेरा विमान रोक रक्खा है। अच्छा देखू में इसकी शक्ति ? मैं इस पहाडको ही उखाड़ कर समुद्र में न फैंक दूं तो मेग नाम दशानन नहीं। उस समय इसने समस्त राजाओं के सम्मुख मेरा नो अपमान किया था, उसका बदला माज मैं इससे अवश्य लगा । आज में इसे अपनी अचिन्त्य विद्याओं की शक्ति दिग्बका दंगा।" क्रोध और अभिमानके असीम बेगको धारण करनेवाले दशाननने अपनी विद्या और पराक्रमके बलपर पर्वतके नीचे प्रवेश किया। उसने अपनी समस्त विद्याशक्ति और पराक्रमकी बाजी लगाकर उस पर्वतके उखाड़नेका उद्योग किया। पोनर वालिदेव ध्यानस्थ थे, तपश्चरणमें मम थे। उनके हृदयमें कुछ भी द्वेष, मभिमान, अथवा क्लुषित भाव न था। उन्होंने देखा कि दशानन एक बड़ा भारी अनर्थ करनेको कटिबद्ध हुआ है। उसके इस प्रकारके उखाइनसे इस पर स्थित भनेक दर्शनीय निनमन्दिर
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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