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________________ १३. जन युग-निर्माता। सत्यम • मान के मि१३ चढ़ाया गया-भरतने माताका सोच, पिताकी मज्ञा • ६५ के आग्रह को माना । पवृक्त ने अपने राज्याधिकारकी चर्चा तक नहीं की। :- .:: तिकी सजा स्वीकार की । वन्ना की आज्ञासे . .. . किन नहीं हुआ । 'टको दस्ते . ...... i ci : Riगा सीता औ• भ्र तृ त्त. २६मणने ८ . द. । ६.३५ो अस्थनीय वेदनाएं 4कष्ट 5, न त्य प्रणसे नहीं टि , वे वन __.. , व तह ... 1ो उनके जान का अ ह्य व ट ! लकिन रे में । म ता और जाके न्द बंधनको : चल दिए। म ग घर चटई। : ।। ३ बंधाते हुए अपने ५.३५ ह चले । . .. | मानन्द्र घा. भर मे विवरण पान ने टसक पु. . वनों और भयानक कन्दराओं को ' अपना १.९.१. ... .भयानक जंगलों औ• गुफा ,ने हुए उन .२५ मी व्याकुल नहीं होता। वे इ. भ्र। स . ज थे। वृक्षोंक मधुर फल रूकिर अपनी क्षुधा शान्त हुए वे को परेवा सरिताको पारकर दंडकारण्यके निकट पहुंचे। गिरिको मुन्दरताने उनके हृदयको माकर्षित कर लिया । वे कुछ समयको विश्राम लेनके लिए वहीं एक कुटी बनाकर ठहर गए।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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