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________________ महात्मा रामचन्द्र । [१२९ श्री रामको राज्य तिलक देनेकी तैयारियां होने लगी, जनता इस महोत्सवमें बड़ी दिलचस्पीसे भाग ले रही थी, आज रजतिलक होनेवाला था इसी समय एक अंतराय उपस्थित हुभा। रानी के कईका पुत्र भरत बालकपनसे ही विरक्त था, अपने पिताको वैराग्यके क्षेत्र अग्रसर हुआ देख उसके विक्त विचारोंको एक और अवसर मिला । वह भी माथके साथ ही वैरागी बनने के लिए तैयार होगया । के कईन त मुनी. टसका हृदय पतिके साथ ही साथ पुत्र वियोग कराह उठा : वह कर्तव्य विमूढ़ होकर कुछ समयको घोर विमान होई । टसकी खो मन्थग थी, मथरा बहुत ही चालाक और कुटिल हृदय थी, रानी चिताका कारण उसे मालूम होगया था। उस; ' नी के ईको एक सलाह दी। वह बोली-रानी ! यह ममय विताका नहीं प्रयत्नका है ! यदि इस समयको तूने चिंतामें खो दिया तो जीवनमा तुझे अपने जीवन के लिए रोना होगा। तुझे राजाने वरदान दिए थे, उन वादानों के द्वारा त आने प्रिय पुत्र भरतके लिए राज्य मांग ले, लेकिन ध्यान रखना प्रतापी रामके रहते हुए भरत गज्य नहीं कर सकेगा, इसलिए राज्यकी सुरक्षाके लिए रामके बनवासका भी दुसरा वर मांग लेना । केकई सरलहृदया नारी थी। उसका इतना साहस नहीं होता था लेकिन मन्थगने साहस देकर उसे इस कार्य के लिए तैयार कर लिया। ____ दशग्य वग्दान देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे । केकईने वरदान मांगा और उसे मिला । श्री रामके मस्तकको मुशोभित करनेवाला
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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