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________________ गणराज गौतम । [३५७ उनका मन विनय और भक्तिसे नम्र हो गया। कभी किसी के साम्हने न झुकनेवाला उनका मस्तिक भगवान महावीरके लागे झुका, उनका सारा अभिमान गलित हो गया। हृदयकमईकार नष्ट होते ही सद्विचारकी भावनाएं लहराने लगीं, वह बोलने लगे- अहा ! जित महात्माका इतना प्रभाव है, जिसके समवशरण की इतनी महिमा है, बहे ऋषि, महात्मा और तत्वज्ञानी जिसकी चरणसेवामें उपस्थित हैं, उस महात्मा नहावीरसे वादविवाद काके मैं किमताह विजय प्राप्त कर सकता हूं? इनके साम्हने मेरा वाद करना हास्य करने के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। सूर्यमंडलके सामने क्षुद्र जुगनू की ममता करना, केवल अपनी मुविनाका परिचय देना ही कहा जायगा। खेद है मुझे अपने अशरज्ञानका इतना अभिमान रहा, लेकिन मुझे इप है कि मैंने उपकी तइको शीम ही पालिया । यह सच है जबतक कोई साधारण मानव अपने साम्हने किसी समाधारण व्यक्ति को नहीं देखता, तबतक उसे अपनी क्षुदतःका भान नहीं होता, और उसे बहा अभिमान रहता है। उंट जचतक पहाडकी उच्च चोटीके साम्हने से नहीं निकलता तबतक अग्नेको संसार में सबसे ऊंचा मानता है, लेकिन पहाडके नीचसे माते ही उसका अपनी उच्चताका सारा अभिमान गल जाता है। मेरी भी आज वही दशा है। सत्य ज्ञान और विवे कसे रहित में अपनको पूर्ण ज्ञानी मानता हुआ में अबतक कूमंडूक ही बना था, लेकिन महात्माके दर्शनमात्रसे मेरा सारा भ्रमजाल भंग होगया । अब यदि मैं अपनेको वास्तविक मानव बनाना चाहता हूं तो मेरा कर्तव्य है कि मैं इनसे वादविवाद
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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