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________________ MINIMALIAMANNAwarwww marwAAMIRMIRROATIHATION महावीर वर्द्धमान । [२८३ साम्राज्य स्थापित करने के लिये तड़फड़ा उठी है, तुम से इस जीर्ण बंधनमें बद्ध रखने का हठ मत करो, अब उसे स्वछंद विचरने की ही अनुमति दो। वर्द्धमान महावीर ने अपने पवित्र उपदेश द्वारा जननी और जनकके मोहजालको छिन्न भिन्न कर दिया । उनसे आज्ञा लेकर वे तपश्चरणके लिए वनकी ओर चल दिए। अपने शरीरको महावीरने ताश्चाणकी ज्वालामें डाल दगा था, तीव्र आंचसे कर्ममल दृर होकर आत्मा पवित्र बनाने लगा था, तपम्याकी भांवमें एक और आंच लगी। वे अनेक स्थानों३र भ्रमण करते हुए एक दिन उज्जयिनी के स्मशानमें ध्यानस्थ थे, स्थ गु नामक स्ट्रने उन्हें देखा । पूर्व जन्म्के संस्कारों के कारण उसने उनकी शांति भंग करनेका कुमित प्रयत्न किया । उन पर अनेक भमहनीय पत किए लेकिन महावीर किसी ताह भी तपश्चग्णसे चलित नहीं हप । अत्याचारी की शक्तिका अन्त होगया था, इस उपमर्गने महावो के तपम्वी हृदयको और भी दृढ़ बना दिया। महावीने नेह वर्ष तक कठिन माघना की । अन्नमें उन्हें इस आत्म साधना का फल के सरके में मिला- उन्होंन सर्वज्ञता प्राप्त की। महावीर बर्द्धमान महान् अात्म संदेशवाहक थे। सर्वज्ञता प्राप्त करते ही विश्व कल्याण के लिए उनका उपदेश प्रारम्भ हुआ। विशाल समाम्थल निर्माण किया गया था। उनका उपदेश सुनने के लिए जनसमूह एकत्रित होने लगा।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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